मुंबई (विसंकें). सुनो उमाकांत, रेखा और बालाजी की शादी तय हुई है. तैयारी करनी होगी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व क्षेत्र प्रचारक विजयराव पुराणिक का फोन आया और रेखा का संपूर्ण जीवन मेरे आंखों के सामने आ गया. पिछले आठ दिनों से सोच रहा हूँ कि इस बारे में कुछ लिखूं. पर जब-जब हाथ में पेन उठाता हूं, आंखे अचानक से भर आती थीं, मन में हलचल होने लगती थी. रेखा का चेहरा मेरे आँखों के सामने बार बार आ रहा था.
कौन है ये रेखा? ऐसा क्यों हो रहा है? लिखते समय आंखे क्यों नम हो रही हैं? रेखा का भूतकाल शब्दों में उतारने की मुझ में हिम्मत ही नहीं है. बल्कि जो-जो रेखा को पहचानता है, ऐसे किसी की भी हिम्मत नहीं होगी. फिर भी प्रयास करता हूँ.
रेखा पारधी समाज से है. ये वही पारधी समाज है, जिसके माथे पे अंग्रेजों ने ‘आप गुनहगार हो’ ऐसी मुहर लगा दी थी. गुनहगारी की यह मुहर आज क़ानूनी तौर पर भले ही मिट गयी है, फिर भी समाज इन्हें संदेहजनक दृष्टि से ही देखता है. अंग्रेज 1947 में भारत छोड़कर चले गए. तथापि आज भी उनके बनाए नियमों के अनुसार पुलिस प्रशिक्षण में ‘पारधियों को गुनहगार ही मानो’ ऐसा सिखाया जाता है. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिस में कहीं भी चोरी हो जाए, डाका पड़ जाए तो पहला संदेह पारधी समाज पर किया जाता है.
खुद को हमेशा असुरक्षित मानने वाले इस पारधी समाज में जन्मी रेखा छह वर्ष की उम्र में अनाथ हो गई. मां-पिताजी की मृत्यु के पश्चात, नांदेड जिले के किनवट तालुका के अंबाडी तांडा गाँव में रहने वाली छोटी सी रेखा के मानो पैरो तले की जमीन ही खिसक गयी. रिश्तेदार होकर भी ना के बराबर थे. वह अकेली नहीं थी. उसके साथ छोटी बहन शीतल, दो साल का भाई अर्जुन और सिर्फ दो महीने का भाई रामचंद्र था.
इन अनाथ बच्चों की देखभाल हम करेंगे, ऐसा कहकर ईसाई धर्मगुरु ने उन्हें अपने साथ रख लिया. इस के पीछे असली उद्देश्य था धर्म परिवर्तन का. इसके लिए छल-बल का प्रयोग भी किया गया. किनवट में संघ के धर्म जागरण विभाग का काम करने वाले गोवर्धन मुंडे को खबर मिली तो यमगर वाड़ी के प्रकल्प में घुमंतू समाज के बच्चों के साथ ये बच्चे रहेंगे, ऐसा विचार कर चर्च-मिशनरी के दुष्चक्र से उन बच्चों को छुड़ा लिया. उन्होंने भटके-विमुक्त विकास परिषद के पदाधिकारियों से संपर्क किया. जल्द ही यमगर वाड़ी प्रकल्प से रमेश पवार किनवट गए और इन बच्चों को जून २००५ में अपने प्रकल्प में लेकर आ गए.
उजले रंग के, भूरी आँखों के, तेजस्वी चेहरों वाले ये चारों बच्चे बड़े ही प्रसन्न दिखाई दे रहे थे. मानो कोई गुड्डा-गुड़िया हो. परंतु जिस आयु में बच्चे गुड्डा-गुड़ियों से खेलते हैं, उस आयु में रेखा ‘आयुष्य’ नाम के शब्द से खेल रही थी. अनेक कठिनाइयां पार करके वह यमगर वाडी में आई थी. छोटे भाई-बहनों के साथ सहन की अनेक वेदनाओं का प्रतिबिम्ब उसके चेहरे पर दिखता था. प्रकल्प में आने के बाद रेखा कई बार अपने भाई बहनों को गले से लगाकर रोती हुई दिखाई देती थी. अनेक प्रश्न उस के चहरे पर दिखाई देते थे. पर, एक महीने में उसके ध्यान में आया कि अब मेरे माता-पिता और मेरा सर्वस्व अब बस यह प्रकल्प ही है. यहीं से शुरू हुई रेखा की यात्रा.
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कैसी थी यह यात्रा?
यमगरवाड़ी – तुलजापूर से अक्कलकोट जाने वाले मार्ग पर १८ किलोमीटर पर यमगर वाड़ी है. १९९३ में भटके विमुक्त विकास परिषद् के अंतर्गत यह प्रकल्प शुरू हुआ. सिर्फ प्रकल्प चलाना है, यह यमगर वाड़ी प्रकल्प की भूमिका नहीं, प्रकल्प का प्रयोजन व्यापक आन्दोलन को पूरक तथा शक्ति देने वाला है. समाज के अत्यंत दुर्लक्षित ऐसे घुमंतू बांधवों के बच्चों को पढ़ाकर एक परिपूर्ण पीढ़ी तैयार करने का क्रम यहाँ चलता है. आज इस प्रकल्प में प्राथमिक एवं माध्यमिक आश्रम शाला में 519 बच्चे पढ़ते हैं. आज यमगर वाड़ी केवल एक प्रकल्प या एक काम नहीं रहा. शिक्षा से जिन का कोई संबंध नहीं था, प्रकल्प में आने वाले ऐसे सभी बच्चों की शिक्षा और आत्मविकास का मार्ग खुल गया और उनके जीवन को प्रकाश का मार्ग दिखने लगा.
प्रकल्प में रहकर रेखा ने प्रगति की और अपने साथ अपने भाई-बहन को भी प्रगति के मार्ग पर ले आई. अपने आप को समझते हुए प्रकल्प के अन्य बच्चों के साथ बंधुभाव रखा. वह सीखते सीखते सीढ़ियाँ चढ़ती गयी. अपने भाई-बहन की माता हुई और शाला में विद्यार्थिनी भी. चौथी कक्षा में रेखा ने क्रीडा स्पर्धा में सहभाग लिया. दौड़ में वह प्रथम आई. रेखा ने खेलकूद के साथ ही विज्ञान में भी प्रतिभा का प्रदर्शन किया. रेखा के ‘कम से कम पानी का उपयोग करके खेती कैसे की जाए’ के मॉडल को जिले में अच्छा प्रतिसाद मिला.
स्वयं के साथ भाई बहनों पर भी उसने ध्यान दिया. रेखा की बहन शीतल पुलिस में भर्ती होने की तैयारी कर रही है. रेखा का भाई अर्जुन विज्ञान हो या गणित, नृत्य हो या अभिनय या गायन अर्जुन हमेशा आगे रहता था. विज्ञान और गणित पर अच्छी पकड़ होने के कारण उसकी डॉक्टर बनने की इच्छा पूरी हो रही है. आज अर्जुन नासिक के सप्तश्रृंगी आयुर्वेद महाविद्यालय में प्रथम वर्ष का विद्यार्थी है. रामचंद्र ने दसवीं की परीक्षा दी है. बड़े भाई बहनों से भी ज्यादा पढूंगा, ऐसा निश्चय उसने किया है.
रेखा आज अनेकों हितचिंतक, दाता, पदाधिकारी, कार्यकर्ताओं के घर का हिस्सा बन गई है. मुंबई में आकर रहना सबके बस की बात नहीं होती, परंतु पिछले चार वर्षों से रेखा ‘फोर्टीज’ जैसे विख्यात रुग्णालय में नर्स की नौकरी कर रही है और वहां पर सब की रेखा मॅम बन गई है.
मैं बता रहा था – रेखा की शादी के बारे में और उस के जीवन की यादों में खो गया. बालाजी मरडे, लातूर के पूर्व संघ प्रचारक के साथ रेखा के जीवन की दूसरी इनिंग शुरू हो गयी है. बालाजी स्वयं एक ऊर्जावान कार्यकर्त्ता है. उस ने MSW किया है.
यमगर वाड़ी एक परिवार है. अनाथपन का बोझा सिर पर उठाए रेखा अपने भाई बहन के साथ प्रकल्प पर आई. शिक्षक से कार्यकर्ता तक सब ने उसे अपना मान लिया. कोई माँ हुआ, कोई मौसी, कोई चाचा, कोई चाची. प्रकल्प में हर कोई पिछले कई दिनों से दिन रात शादी की तैयारी में जुट गया था. दिनांक २८ जून को भटकेश्वर भगवान के आशीर्वाद से रेखा और बालाजी के विवाह का साक्षीदार होने का सौभाग्य सब को मिला.
रेखा की विदाई के समय हर एक की आँखें भर आई थीं. हर कोई उसे बता रहा था कि किसी चीज की आवश्यकता हो तो बताना. पर, उसकी आँखों में छलकता आत्मविश्वास कह रहा था, चिंता मत कीजिये. मैं यमगर वाड़ी प्रकल्प में बड़ी हुई हूँ, जब-जब फोन करुँगी, तब प्रगति की, कर्तृत्व की ही बात करुंगी.
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