सभ्यताओं के संघर्ष में संवाद का रास्ता दिखाती है भारतीय संचार परंपरा’

लोकमंगल से भटका, नकारात्मकता में क्यों अटका मीडिया?

नई दिल्ली. मीडिया में ऐसे कौन से पहलू हैं, जिनसे भारतीय मूल्य नेपथ्य में जाते दिखते हैं और पश्चिम की नकारात्मक अवधारणाएं हावी हैं? इस अहम सवाल का जवाब सभ्यता अध्ययन केंद्र की शोध पत्रिका सभ्यता संवाद के लोकार्पण कार्यक्रम में मिला. ‘सभ्यतागत संघर्ष और संचार की भारतीय अवधारणा’ पर केंद्रित शोध पत्रिका के लोकार्पण अवसर पर वक्ताओं ने कहा कि भारत की परंपरा ऐसे वक्त में भी संवाद की बात करती है, जब संघर्ष अवश्यंभावी दिख रहा हो.

केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश के कुलपति कुलदीप चंद अग्निहोत्री ने भारत की संवाद परंपरा को एक उत्कृष्ट उदाहरण देते हुए कहा कि जब महाभारत में कुरुक्षेत्र के मैदान में सेनाएं डटी थीं तो अर्जुन के मन में कई प्रश्न आए और कृष्ण ने उनका उत्तर दिया. यही भारत की संवाद परंपरा है कि कठिन समय में भी वह लोकमंगल के विषय पर बात करती है. सभ्यताओं के संघर्ष को लेकर उन्होंने कहा कि भारत संवाद की सभ्यता है और उसका टकराव ऐसी सभ्यताओं से होता रहा है, जहां संवाद की न्यूनतम संभावनाएं हैं. मीडिया में भी जब ऐसी सभ्यता हावी होती है तो संवाद के पक्ष बदल जाते हैं और नकारात्मक नैरेटिव हावी हो जाता है.

भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक संजय द्विवेदी ने कहा कि मीडिया में नकारात्मक पक्षों की चर्चा अधिक होने और मूल्यों से भटकने की वजह यही है कि उसने भारत के लोकमंगल के उद्देश्य को त्याग दिया है. भारत की संवाद परंपरा लोकमंगल की बात करती है. उन्होंने कहा कि महर्षि नारद से लेकर गोस्वामी तुलसीदास तक ने लोकमंगल को ही संवाद का मुख्य उद्देश्य माना है. हालांकि स्वतंत्रता के पश्चात मीडिया और साहित्य में कम्युनिज्म के हावी होने के चलते लोकमंगल की बात नेपथ्य में चली गई है और नकारात्मकता हावी है. हमें पहले दिन से ही यह पाठ पढ़ाया गया कि कोई नकारात्मक बात है, तभी समाचार बनेगा. भारत की बात करेंगे तो हमारे यहां लोकमंगल शब्द मिलेगा. दीनदयाल का दर्शन हो या फिर लोहिया जी का समाजवादी सिद्धांत, दोनों ही लोकमंगल की बात करते हैं. हालांकि हमने इसे त्यागते हुए विदेशी मूल्यों को अपना लिया है.

मीडिया में नकात्मक समाचारों की प्रमुखता को लेकर आरएसएस के अखिल भारतीय सह-प्रचार प्रमुख नरेंद्र ठाकुर ने कहा कि मीडिया में विदेशी मूल्यों का नकारात्मक नैरेटिव हावी होने के चलते वह भारतीय मूल्यों से बचता दिखता है. उन्होंने कोरोना काल में मजदूरों के पलायन पर नकारात्मक समाचारों की भरमार को लेकर कहा कि लाखों लोग जब इधर से उधर होंगे तो कुछ समस्याएं आएंगी. 23 मार्च से लॉकडाउन हुआ और 25 तारीख से ही इस संबंध में विमर्श शुरू कर दिया गया. कई स्थानों पर ऐसा भी हुआ कि लोग गाड़ी से जा रहे थे और मीडिया के कुछ लोगों ने उन्हें उतारकर कहा कि आप लोग कुछ दूर पैदल चलिए और हम आपका वीडियो बनाएंगे. यह एक तरह का मिथ्या विमर्श है, जबकि मूल बातों को नेपथ्य में डाल दिया जाता है.

कार्यक्रम का शुभारंभ करते हुए पत्रिका के अतिथि संपादक डॉ. जयप्रकाश सिंह ने कहा कि भारत में पूरी दुनिया से अलग संचार की एक विशिष्ट परंपरा, अवधारणा रही है. आज के दौर में सभ्यताओं के संघर्ष में सूचना और संवाद का महत्व बढ़ गया है. आज जब सभ्यताओं का संघर्ष काफी तीव्र हो रहा है तो उसमें मुख्य बिंदु सूचना ही होगी. इसलिए इस पत्रिका में सूचना और संचार की परंपरा की भारतीय अवधारणा की बात की गई है.

पत्रिका के संपादक रविशंकर ने कहा, ‘हमारे मन में बहुधा यह प्रश्न आता है कि हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों में अंतर क्यों है. अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय और शीर्षकों को देखें और फिर हिंदी या फिर अन्य क्षेत्रीय भाषाओं पर नजर डालें तो आप बड़ा अंतर पाएंगे. यह भिन्नता हिंदी और अंग्रेजी के चैनलों में भी दिखती है.’ उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों का उदाहरण देते हुए कहा कि इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के दौरान हिंदी और अंग्रेजी के मीडिया की कवरेज में बड़ा अंतर था. इसके अलावा यदि हम गाय, संस्कृति, आर्य विमर्श और जाति विमर्श की ही बात करें तो यह अंतर दिखता है.

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